क्या भारत एक हिन्दू राष्ट्र बन सकता है ? Can India become a Hindu Rashtra?

By Nempal Singh (Advocate)

Date: 12/08/2022


भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाए जाने की मुहीम :



         बी0बी0सी0 के द्वारा जारी की गयी एक रिपोर्ट के आधार पर इस बात को समझने में मदद मिलती है कि किस प्रकार भारत देश को एक हिन्दू राष्ट्र बनाने के लिए एक अप्रत्याशित मुहीम चलाई जा रही है। जिसे शायद केंद्र की मौजूदा सरकार प्रत्यक्ष रूप से मानाने के लिए तैयार नहीं है। लेकिन यदि बी0बी0सी0 की रिपोर्ट की बात की जाए तो यह कहना गलत नहीं होगा कि कुछ तो है जो एक नियोजित रूप में इस देश में चल रहा है। यह मुहीम कब, कैसे और किस तरीके से आगे बढ़ाई जा रही है इस बात का अंदाजा बी0बी0सी0 की कुछ अगस्त माह 2022 में जारी की गई रिपोर्ट्स के माध्यम से लगाया जा सकता है। अब अगर हम अल्पसंख्यक समुदायों की बात करें तो यह कहना उचित होगा कि कथित तौर पर बहुत सी ऐसी घटनाएं हो रही हैं जिसके फलस्वरूप अल्पसंख्यक समुदायों में एक डर और असमंजस की स्थिति पैदा हो गयी है। (इस वीडियो को देखें) सोशल मीडिया पर उपलब्ध काफी रिपोर्ट्स एवं वीडियोस के आधार पर यह कहा जा सकता है कि काफी ऐसी घटनाएं घट रही हैं जिससे यह पता लगाया जा सकता है कि अल्पसंख्यक समुदायों में से एक कहे जाने वाले मसीह समुदाय को कथित तौर पर इन घटनाओं का लगातार सामना करना पड़ रहा है चर्च व् प्रार्थना भवनों पर अटैक किया जा रहा है और धर्मांतरण का झूठा आरोप लगाते हुए कुछ कट्टरपंथी संगठनों द्वारा प्रार्थना सभाओं को बंद करवाया जा रहा है (इस वीडियो को देखें) और इन घटनाओं का सिलसिला अलग अलग राज्यों में लगातार जारी है। (वायर की इस रिपोर्ट को भी देखें)  इन सभी तथ्यों को ध्यान में रखते हुए यह स्पष्ट रूप में कहा जा सकता है कि सीधे तौर पर यह भारत देश के संवैधानिक मूल्यों के विपरीत किया जाने वाला अल्पसंख्यक मसीह समुदाय पर एक गहरा आघात है। 


अल्पसंख्यक मसीह समुदाय की मौजूदा स्थिति :


            कुछ सोशल मीडिया में उपलब्ध रिपोर्ट्स के आधार पर यदि हम अल्पसंख्यक मसीह समुदाय की खास तौर पर बात करें तो कथित तौर पर इस वक़्त मसीह समुदाय को निशाना बनाने की कोशिश की जा रही है। प्रार्थना सभाओं को झूठा धर्मांतरण का आरोप लगा कर रुकवाया जा रहा है और यहाँ तक कि मसीह पासबानों के खिलाफ झूठा मुकदमा किया जा रहा है। कथित तौर पर इस बात की भी जानकारी मिलती है कि बीते दिनों में कितने मसीह लोगों के खिलाफ धर्मांतरण सम्बन्धी मुकदमों को दायर करके उन लोगों को गिरफ्तार किया गया है और जेल भेजा गया है। कथित तौर पर और सोशल मीडिया में उपलब्ध जानकारी के आधार पर अमूमन इन सभी घटनाओं के पीछे किसी ना किसी कट्टरपंथी संगठन का हाथ होता है और इन कट्टरपंथी संगठनों के द्वारा प्रार्थना सभाओं में घुस कर मार पीट व् तोड़ फोड़ की जाती है और पुलिस पर मसीह लोगों के खिलाफ मुकदमा करने का दबाव बनाया जाता है। जैसा कि पिछले कुछ लेखों के माध्यम से संवैधानिक पहलुओं की बात बताई गयी थी और यदि हम कथित तौर पर इन सभी जबरन मसीह समुदाय के खिलाफ की गयी घटनाओं को देखते हैं तो संवैधानिक अधिकार एवं स्वंतंत्रता का कोई मोल दिखाई नहीं पड़ता लेकिन फिर भी इन सभी प्रकार की परिस्थितियों के बावजूद भी मसीह समुदाय को अपने क़ानूनी एवं संवैधानिक अधिकारों के विषय में जानकारी होना अत्यंत आवश्यक है। हाल ही में मसीह समुदायों पर हो रहे आक्रमण के मद्देनज़र एक पेटिशन सुप्रीम कोर्ट में वर्ष 2021 में मसीह समुदाय के खिलाफ की गयी घटनाओं की रिपोर्ट के आधार पर फाइल की गयी थी (इस रिपोर्ट को पढ़ें)  यहाँ तक कि एक स्पेशल लीव पेटिशन माननीय सुप्रीम कोर्ट में दायर की गयी थी जिसमें माननीय सुप्रीम कोर्ट से मद्रास हाई कोर्ट के एक आदेश जिसमें कि अल्पसंख्यक मसीह समुदाय की धर्मांतरण के सन्दर्भ में निगरानी करने के लिए केंद्र सरकार व् तमिल नाडु सरकार को एक बोर्ड बना कर मसीह समुदाय पर निगरानी करने के आदेश देने के लिए गुहार लगाई गयी थी और मद्रास हाई कोर्ट के द्वारा उस पेटिशन को रिजेक्ट कर दिया गया था और फिर उस आर्डर को स्पेशल लीव पेटिशन के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज किया गया था और सुप्रीम कोर्ट के द्वारा भी मद्रास हाई कोर्ट के आदेश को बरक़रार रखे जाने की बात कहीं गयी और पेटिशन को जुर्माने के साथ डिसमिस करने के आदेश दिए जाने की बात की गयी और फिर उस स्पेशल लीव पेटिशन को वापिस ले लिया गया था। (इस रिपोर्ट को पढ़ें )  इन सभी तथ्यों से इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि मसीह समुदायों के खिलाफ हो रही घटनाओं के सन्दर्भ में कोर्ट का सहारा भी लिया जा रहा है। 


क्या मौजूदा संवैधानिक प्रावधानों के चलते भारत का एक हिन्दू राष्ट्र बनना संभव है ?



            मौजूदा संवैधानिक प्रावधानों के मद्देनज़र भारत वर्ष का एक हिन्दू राष्ट्र बनना संभव नहीं माना जा सकता है जबतक कि संविधान के पार्ट III में अमेंडमेंट ना की जाए जो कि मौलिक आदिकारों से सम्बंधित है। क्योंकि धार्मिक अधिकार भी संविधान में दिए गए कुल छह मौलिक अधिकारों में से एक है और संविधान के पार्ट III के अंतर्गत आता है और अनुच्छेद 368  के अंतर्गत पार्लियामेंट को यह पावर है कि वह संविधान के पार्ट III में जो कि मौलिक अधिकारों से सम्बंधित है अमेंडमेंट कर सकती है लेकिन इसके लिए हमे कुछ महत्वपूर्ण केसेस के बारें में जानकारी होनी चाहिए। जब भारतीय संविधान का निर्माण किया गया उसके कुछ समय के बाद ही संविधान के पार्ट III में अमेंडमेंट को शंकरी प्रशाद बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया सन 1951 में चैलेंज किया गया जिसमें विवाद प्रॉपर्टी के संदर्भ में था जिसके चलते काफी केस फाइल होने लगे थे और फिर पार्लियामेंट के द्वारा अनुच्छेद 31 (a) और 31 (b) को अमेंडमेंट के द्वारा जोड़ा गया था जो कि पार्ट III में आता है और अमेंडमेंट कर दी गयी थी और पेटिशनर के द्वारा कहा गया कि अनुच्छेद 13 (2) के अंतर्गत पार्लियामेंट के द्वारा यदि कोई ऐसा कानून बनाया जाता है जो किसी के मौलिक अधिकारों का हनन करता हो तो वह कानून लागू नहीं किया जा सकता और वह कानून गैरकानूनी माना जाना चाहिए क्योंकि यह प्रावधान अनुच्छेद 13 (2) में लिखा गया है। इस पर सुप्रीम कोर्ट के द्वारा कहा गया था कि पार्लियामेंट को अनुच्छेद 368 के अंतर्गत यह पावर है कि वह सीधे पार्ट III में ही अमेंडमेंट कर सकती है और अनुच्छेद 31 (a) और (b)  जो अमेंडमेंट के माध्यम से जोड़ा गया है वह अमेंडमेंट करने की पावर पार्लियामेंट को है और अनुच्छेद 13 (b) उस कानून के विषय में व्याख्या करता है जो असल में एक कानून हो और मौलिक अधिकारों का हनन करता हो लिहाजा इस केस में अनुच्छेद 13 (b) लागू नहीं होता है बल्कि यह केस अनुच्छेद 368 के अंतर्गत आता है जिसमें कि पार्लियामेंट को अनुच्छेद 31 (a) और (b) को जोड़ने की पावर है। इसके बाद सज्जन सिंह बनाम  स्टेट ऑफ़ राजस्थान सन 1965 में आया जो कि 17 वीं अमेंडमेंट के संदर्भ में था और इस केस में भी सुप्रीम कोर्ट के द्वारा कहा गया कि पार्लियामेंट अनुच्छेद 368 के अंतर्गत मौलिक अधिकारों में अमेंडमेंट कर सकती है। फिर सन 1967 में गोलख नाथ बनाम स्टेट ऑफ़ पंजाब केस आया जो कि 17 वीं अमेंडमेंट के सन्दर्भ में ही था और इस केस में माननीय सुप्रीम कोर्ट के द्वारा पहले के दोनों केसेस के आदेशों को पलटते हुए कहा कि पार्लियामेंट को फंडामेंटल (मौलिक अधिकारों) पार्ट III में कोई भी फेर बदल अमेंडमेंट के माध्यम से करने का अधिकार नहीं है लेकिन यह भी कहा कि पहले के जो दो आदेश किये गए हैं उनमें कोई फेर बदल नहीं किया जायेगा। आगे से पार्लियामेंट को मौलिक अधिकारों में जो कि पार्ट III में आते हैं उनमें अमेंडमेंट करने का अधिकार नहीं होगा। इसके बाद भी काफी केस और भी फाइल किये गए लेकिन सुप्रीम कोर्ट के द्वारा कोई फेर बदल नहीं किया गया। अब इस बात को ध्यान में रखते हुए पार्लियामेंट ने 24 वा अमेंडमेंड कर दिया और वो अमेंडमेंट सीधे अनुच्छेद 368 में कर दिया गया जिसमें कि पार्लियामेंट को यह सम्पूर्ण पावर दे दी गयी कि वह संविधान के मौलिक अधिकारों में किसी भी किस्म का फेर बदल कर सकते हैं और उसे  कोर्ट में चैलेंज भी नहीं किया जा सके और सुप्रीम कोर्ट भी किसी बात के लिए मना ना कर सके।अब इसमें लेजिस्लेचर और जुडिशरी के बीच में एक विवाद उत्पन्न हो गया और यह माना जाने लगा कि पार्लियामेंट जुडिशरी की पावर को छीनना चाहती है। उसके बाद सन 1973 में 29 वे अमेंडमेंट को लाया गया जो कि केशवनंद भारती बनाम स्टेट ऑफ़ केरला केस में चैलेंज किया गया जो कि धार्मिक अधिकारों के सन्दर्भ में था इस केस में 13 जजों की बेंच ने कहा कि मौलिक अधिकारों में पार्लियामेंट के द्वारा अमेंडमेंट की जा सकती है लेकिन मौलिक अधिकारों के बेसिक स्ट्रक्चर में कोई फेर बदल अमेंडमेंट के द्वारा नहीं किया जा सकता अर्थात जो मौलिक अधिकारों का मूल है अर्थात आत्मा है उसमें कोई अमेंडमेंट नहीं की जा सकती है। बेसिक स्ट्रकचर में निम्नलिखित बिन्दु आते हैं जो कि माननीय सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में बताए : 


👉1. Supremacy of the Constitution 

👉2. Unity and Sovernity of India 

👉3. Democratic and Republic form of Government 

👉4. Federal Character Of the Constitution

👉5. Secular Character Of the Constitution

👉6. Separation Of Power

👉7. Individual Freedom 


            इसके बाद सन 1980 में मिनरवा मिल लिमिटेड बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया केस में 42 वें अमेंडमेंट को चैलेंज किया गया जिसमें पार्लियामेंट फिर से हर प्रकार की मौलिक अधिकारों में अमेंडमेंट की पावर लेना चाहती थी और यह प्रयास किया गया कि वह उस किस्म की पावर हो जिसे कोई चैलेंज भी ना कर सके और यह अनुच्छेद 368 में अमेंडमेंट करके किया गया था। तब फिर से सुप्रीम कोर्ट ने उस अमेंडमेंट को निरस्त कर दिया और फिर उसके बाद सन 1992 में  श्रीकुमार पदम् प्रसाद बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया केस सामने आया और सुप्रीम कोर्ट के द्वारा इस केस के आदेश के रूप में पार्लियामेंट की मौलिक अधिकारों में अमेंडमेंट करने की पावर को सिमित किया गया और जुडिशरी की सुनवाई करने की पावर को भी बरक़रार रखा गया। इस विषय में जानना जरुरी है कि संविधान के अंतर्गत एग्जीक्यूटिव, जुडिशरी और लेजिस्लेशन एक दूसरे के कार्य में बाधा नहीं डाल सकते। यह तीनों ईकाइयां एक दूसरे के कार्य में हस्तक्षेप नहीं कर सकती हैं।  

          इसलिए दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि पार्लियामेंट अर्थात लेजिस्लेचर को यदि संविधान के पार्ट III (मौलिक अधिकारों) में बदलाव अमेंडमेंट के रूप में करना है तो आज के समय में यह जरुरी है कि पार्लियामेंट जुडिशरी की पावर पर और अधिकार पर किसी भी किस्म से प्रभाव ना डाले और संविधान के अंतर्गत मौलिक अधिकारों के बेसिक स्ट्रक्चर  में किसी किस्म का फेर बदल अमेंडमेंट के द्वारा ना करे। 

           अंततः यह कहा जा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के अनुसार पार्लियामेंट (लेजिस्लेचर) को किसी भी किस्म से संविधान के पार्ट III (मौलिक अधिकारों) के बेसिक स्ट्रक्चर को बरक़रार रखते हुए एक सिमित दायरे में ही मौलिक अधिकारों में अमेंडमेंट करने का अधिकार है और सुप्रीम कोर्ट के द्वारा निर्देशित बेसिक स्ट्रक्चर के पांचवे बिंदु में Secular Character Of the Constitution  (सेक्युलर करैक्टर ऑफ़ दा कांस्टीट्यूशन) का पालन करना जरुरी है और इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि भारत वर्ष का एक मात्र हिन्दू राष्ट्र के रूप में रूपांतरण होना अभी तक संभव नहीं है।   



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