पैन्टीकोस्टल और एपिस्कोपल चर्च पद्धति। क़ानूनी मान्यताएँ ?

By: Nempal Singh (Advocate)

Date: 10/04/2024



एपिस्कोपल और पैंटिकॉस्टल चर्च पद्धति: 


       पैंटिकॉस्टल चर्च पद्धति मसीह विश्वास पर आधारित वह पद्धति है जिसको समझना हर एक विश्वासी और सेवक के लिए आवश्यक है। गौरतलब है कि इस समय ईसाई समाज के सन्दर्भ में क्रिस्चियन मैरिज एक्ट 1872 के अलावा कोई और दूसरा कानून इस देश में नहीं है और यदि हम क्रिस्चियन मैरिज एक्ट, 1872 की बात करें तो यह कानून सिर्फ एक ही किस्म की चर्च पद्धति की बात करता है और वो एपिस्कोपल चर्च पद्धति है। अब सवाल यह उठता है कि यदि एक मात्र कानून में सिर्फ एपिस्कोपल पद्धति के विषय में व्याख्यान है तो पैंटिकॉस्टल पद्धति की क़ानूनी मान्यता क्या है ?




    जैसा कि हम सभी जानते हैं कि भारत में मुख्य रूप से पैंटिकॉस्टल पद्धति पर आधारित विश्वास पाया जाता है और यह विश्वास एक अनोखा विश्वास है जो कि आत्मिक परिवर्तन पर आधारित है और जिसका सांसारिक रूप से धर्मांतरण से कोई खास सम्बन्ध नहीं है। अब सवाल यह उठता है कि कोई अन्य कानून ना होने की स्थिति में पैंटिकॉस्टल मसीह विश्वास कानून के किस दायरे में सही माना जाएगा ? क्या पैंटिकॉस्टल पद्धति को कानूनन रूप से एपिस्कोपल पद्धति की तरह ही मसीह विश्वास का हिस्सा माना जा सकता है ? आज इस लेख के माध्यम से एपिस्कोपल और पैंटिकॉस्टल चर्च पद्धति के सन्दर्भ में क़ानूनी मान्यताओं के विषय में विश्लेषण करना जरुरी है।  


पैंटिकॉस्टल चर्च पद्धति: 



    पैंटिकॉस्टल चर्च पद्धति के विषय में यदि बात की जाए तो कहा जा सकता है कि यदि कोई व्यक्ति अपनी आस्था मसीह यीशु पर रखता है चाहे वह मूल रूप से कसी भी धर्म से सम्बन्ध क्यों ना रखता हो वह ऐसा कर सकता है। क्योंकि अनुच्छेद 25 भारतीय संविधान इस विषय में बिलकुल स्पष्ट है जिसके अनुसार एक व्यक्ति जो कि व्यस्क है चाहे वह किसी भी धर्म से सम्बन्ध क्यों ना रखता हो, वह व्यक्ति ईश्वर के किसी भी स्वरुप को मान सकता है अर्थात हर एक नागरिक को अनुच्छेद 25 भारतीय संविधान के अंतर्गत अंतःकरण की स्वंत्रता प्राप्त है। अंतःकरण की स्वंत्रता का सीधा सा मतलब है अंदरूनी मन की स्वतंत्रता । इसके अंतर्गत कोई भी व्यक्ति चाहे उसका मूल धर्म कुछ भी हो वह अपनी आस्था ईश्वर के किसी भी स्वरुप में रख सकता है। उदाहरण के तौर पर यदि कसी व्यक्ति को ईश्वर का स्वरुप एक पत्थर में  दिखाई देता है तो वह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 के अनुसार अपनी आस्था उस पत्थर में रख सकता है और यदि उसकी आस्था जिसमें है और वह कानूनन रूप से किसी एक धर्म के रूप में जाना जाता है तो वह व्यक्ति उस विश्वास और धर्म के आधार पर आचरण भी कर सकता है। उदाहरण के तौर पर हिन्दू धर्म का अपना आचरण है, मुस्लिम धर्म का अपना आचरण है, किसी भी धर्मगुरु की अगुवाई में चलाए जा रहे सत्संग का अपना अलग आचरण है और इसी तरह सिख धर्म का अपना आचरण है ठीक इन्ही सब की तरह मसीह विश्वास और आस्था का भी अपना आचरण है जैसे दूसरों के लिए प्रार्थना करना, अराधना और प्रार्थना के समय पर झूमना - गाना और अन्य अन्य भाषा में बोलना। इसके अलावा वह व्यक्ति अपनी आस्था और विश्वास अथवा  धर्म का प्रचार एवं प्रसार भी कर सकता है। जिसके लिए उस व्यक्ति को अनुच्छेद 25 भारतीय संविधान के अंतर्गत अपने संवैधानिक अधिकार का प्रयोग करते हुए लोक स्वास्थ्य, नैतिकता और लोक व्यवस्था का ख्याल रखना अत्यंत आवश्यक है। यह भी जान लेना अत्यंत आवश्यक है कि यदि लोक स्वास्थ्य, नैतिकता और लोक व्यवस्था का ख्याल ना रखा जाए तो कोई भी व्यक्ति अनुच्छेद 25 भारतीय संविधान के अंतर्गत अपने अधिकार का इस्तेमाल नहीं कर सकता है।  



    अब इस बात को भी जानना अत्यंत आवश्यक है कि किस आधार पर एक पैंटिकॉस्टल विश्वासी  व्यक्ति या सेवक एक मसीह सेवक के रूप में सेवा कर सकता है, जबकि वह क़ानूनी रूप से एपिस्कोपल चर्च पद्धति का हिस्सा नहीं है ? इसके जवाब में बड़े ही साफ़ तौर पर यह कहा जा सकता है कि भारतीय संविधान की नज़र में सबसे पहले एक व्यक्ति भारतीय नागरिक है उसका धर्म चाहे जो भी हो लेकिन संविधान किसी धर्म को नहीं बल्कि नागरिक को पहचानता है और संविधान की नज़र में हर एक नागरिक समान हैं चाहे उसका धर्म कोई भी क्यों ना हो।  इस आधार पर यह कानूनन रूप से कहा जा सकता है कि यदि कोई व्यक्ति व्यस्क होने पर अपने मौलिक अधिकार अनुच्छेद 25 भारतीय संविधान के अनुसार यह कहता है कि वह मसीह यीशु पर विश्वास करता है और वह मूल रूप से किसी और धर्म से सम्बन्ध रखता है तो उस स्थिति में वह पुख्ता तौर पर क़ानूनी रूप से मसीह यीशु में आस्था व विश्वास रख सकता है और प्रचार और प्रसार भी कर सकता है। इसके लिए जरुरी नहीं है कि वह व्यक्ति अपने मूल धर्म को त्याग कर ईसाई धर्म को अपनाए । लेकिन यह ध्यान रखना आवश्यक है कि यदि वह व्यक्ति सेवा करता है तो अपना परिचय एक पादरी के रूप में नहीं बल्कि भारत के एक नागरिक के रूप में मसीह यीशु के एक अनुयायी के रूप में दे तो उचित है और उसके लिए यह भी जरुरी नहीं होगा की वह एपिस्कोपल चर्च पद्धति का हिस्सा हो क्योंकि ऐसी स्थिति में अनुच्छेद 25 भारतीय संविधान उसे एक नागरिक के रूप में यह अधिकार देता है कि वह मसीह यीशु में अपनी आस्था रख सकता है और उस अपने विश्वास का लोक स्वास्थ्य, नैतिकता और लोक व्यवस्था का पालन करते हुए प्रचार व प्रसार भी कर सकता है। अब यदि हम एपिस्कोपल चर्च पद्धति की बात करें तो उसके लिए यह जरुरी हो जाता है कि वह व्यक्ति पहले अपने मूल धर्म का त्याग करे और फिर अपने आपको क़ानूनी रूप से एक ईसाई पादरी के रूप में दस्तावेजों के साथ प्रदर्शित करे। जो कि धर्मांतरण, ऑर्डिनेशन व् अन्य दस्तावेजों के रूप में हो सकता है और वहीँ  दूसरी तरफ पैंटिकॉस्टल विश्वास के साथ एक नागरिक के रूप में मसीह यीशु की आराधना, प्रार्थना व संगती और प्रचार प्रसार किया जा सकता है और कोई भी कानून उस व्यक्ति को एक नागरिक के रूप में प्रचार व प्रसार से नहीं रोकता है चाहे उसका मूल धर्म कोई भी क्यों ना हो । साधारण शब्दों में कहा जा सकता है कि अनुच्छेद 25 भारतीय संविधान के अंतर्गत किसी भी धर्म से सम्बन्ध रखने वाला व्यक्ति किसी भी अन्य धर्म पर विश्वास कर सकता है और उस धर्म का प्रचारक हो सकता है।  इसके लिए भारत के किसी भी कानून में कोई मनाही नहीं है क्योंकि वह हर एक नागरिक का यह मौलिक अधिकार (Fundamental Right) है। 


एपिस्कोपल चर्च पद्धति: 



    अब यह भी जरुरी हो जाता है कि एपिस्कोपल चर्च पद्धति को भी समझा जाए। जैसा कि अब तक आपको यह स्पष्ट हो ही गया होगा कि मसीह विश्वास दो पद्दतियों पर आधारित है। एक पैंटिकॉस्टल पद्धति और दूसरी एपिस्कोपल पद्धति । जैसा कि मैंने आपको ऊपर लिखित लेख के पहले भाग में बताया कि पैंटिकॉस्टल पद्धति के लिए और खास तौर पर मसीह यीशु पर विश्वास करने और सेवा करने के लिए जरुरी नहीं है कि वह व्यक्ति एपिस्कोपल चर्च पद्धति का हिस्सा हो बशर्ते कि वह अपने आपको एक पादरी ना कहे बल्कि एक मसीह विश्वासी नागरिक के रूप में प्रदर्शित करे । लेकिन एपिस्कोपल चर्च पद्धति है क्या ? इस बारे में जानना बहुत अधिक आवश्यक है। अब इस भाग में हम एपिस्कोपल चर्च पद्धति के विषय में जानेंगे। जैसा कि ऊपर बताया गया है कि भारत में ईसाई समाज के लिए सिर्फ एक ही कानून है जो कि क्रिस्चियन मैरिज एक्ट, 1872 के रूप में जाना जाता है और जिसके अनुसार एपिस्कोपल चर्च पद्धति को ही क़ानूनी रूप से मान्यता दी गयी है। स्पष्ट एवं साधारण शब्दों में कहा जा सकता है कि एपिस्कोपल चर्च पद्धति वह पद्धति है जो कि इस देश के आज़ाद होने के पहले से इस देश में व्याप्त है और जिसे हम मेन लाइन चर्च व्यवस्था के रूप में भी जानते हैं। जिसके अंतर्गत सभी प्रकार की मेन लाइन चर्च आती हैं। एपिस्कोपल चर्च पद्धति एक बिशपिक व्यवस्था है जिसके अंतर्गत हर एक चर्च का एक बिशप होना अनिवार्य है। इसके अलावा एपिस्कोपल चर्च पद्धति के लिए यह क़ानूनी रूप से आवश्यक है कि व्यक्ति एक सेवक अथवा पादरी के रूप में क़ानूनी रूप से ईसाई धर्म को अपने मूल धर्म के रूप में अपना चुका हो और अपने मूल धर्म को त्याग चुका हो। क्योंकि एक विश्वासी का मूल धर्म कोई भी हो सकता है और उस विश्वासी के लिए यह भी आवश्यक नहीं है कि वह अपने मूल धर्म को त्याग कर ईसाई धर्म को अपनाए । लेकिन यदि हम एपिस्कोपल चर्च पद्धति के अंतर्गत एक सेवक अथवा पादरी की बात करें तो उस व्यक्ति के लिए एक पादरी के रूप में जरुरी है कि वह मूल रूप से क़ानूनी रूप में ईसाई धर्म से सम्बन्ध रखता हो और यदि उसका पहले मूल धर्म कुछ और था तो वह क़ानूनी रूप से उस अपने पहले के धर्म को त्याग चुका हो। एक उदाहरण के तौर पर यदि देखा जाए तो जैसे एक हिन्दू पंडित किसी मस्जिद का मौलवी कानूनन रूप से नहीं हो सकता ठीक उसी प्रकार से एक चर्च का पादरी भी कानूनन रूप से किसी और धर्म का व्यक्ति नहीं हो सकता ।  फर्क सिर्फ इतना है कि पैंटिकॉस्टल चर्च पद्धति में एक विश्वासी भी सेवा कर सकता है चाहे उसका मूल धर्म कोई भी क्यों ना हो लेकिन एपिस्कोपल चर्च पद्धति में पादरी होने के लिए जरुरी हो जाता है कि वह पहले ईसाई धर्म को क़ानूनी रूप से अपनाए। अधिकतर इस बात को लेकर मसीह समाज में विवाद है कि विश्वास करने के लिए और सेवा करने के लिए धर्मांतरण की आवश्यकता ही क्यों है ? इस सवाल के जवाब या विवाद के हल के रूप से यह स्पष्ट तौर पर और दावे के साथ कहा जा सकता है कि यदि कोई व्यक्ति अपने आपको क़ानूनी रूप में (Officially) पादरी के रूप में दर्शाना चाहता है तो यह क़ानूनी रूप में समझा जाएगा कि वह एपिस्कोपल चर्च पद्धति का हिस्सा है क्योंकि एक पादरी क़ानूनी रूप में एपिस्कोपल चर्च पद्धति के अंतर्गत ही हो सकता है। तो ऐसी स्थिति में यह जरुरी हो जाता है कि वह व्यक्ति मूल रूप से ईसाई धर्म को अपना चुका हो और अपने पहले के मूल धर्म को त्याग चुका हो क्योंकि एक व्यक्ति दो अलग अलग धर्मों से officially सम्बंधित नहीं हो सकता है। और वहीँ दूसरी तरह यदि हम एपिस्कोपल एवं पैंटिकॉस्टल चर्च पद्धति के दृष्टिकोण से एक विश्वासी की बात करें तो एक विश्वासी अनुच्छेद 25 भारतीय संविधान के अंतर्गत किसी भी धर्म से सम्बंधित हो सकता है और वह मूल रूप से किसी भी अन्य धर्म का होते हुए भी दोनों ही पद्धतियों के अंतर्गत एक विश्वासी के रूप में मसीह यीशु में आस्था और विश्वास रख सकता है इसके लिए जरुरी नहीं है कि वह विश्वासी अपने मूल धर्म को त्याग कर ईसाई धर्म को अपनाए और यदि वह ईसाई धर्म को अपनाना चाहता है तो वह क़ानूनी प्रक्रिया के तहत ईसाई धर्म को अपना सकता है और इस देश का कोई भी कानून उसे धर्मांतरण करने से नहीं रोकता है क्योंकि वह उसका मौलिक अधिकार है। 


क़ानूनी दृष्टिकोण: 



    क़ानूनी दृष्टिकोण में यदि हम समझें तो सिर्फ यह समझना जरुरी है कि क़ानूनी रूप से मसीह विश्वास और मसीह सेवा के दो भाग है जो कि पैंटिकॉस्टल और एपिस्कोपल चर्च पद्धति के रूप में जाने जाते हैं । लेकिन देखा यह गया है कि अनभिज्ञता वश इन दोनों भागों को आपस में मिला दिया गया है जबकि क़ानूनी दृष्टिकोण से दोनों का औपचारिक तौर पर कोई सम्बन्ध नहीं है। एपिस्कोपल चर्च पद्धति एक क़ानूनी प्रक्रिया से चलने वाली पद्धति है जबकि पैंटिकॉस्टल चर्च पदत्ति सिर्फ संवैधानिक प्रक्रिया से चलने वाली पद्धति है जो कि अनुच्छेद 25 भारतीय संविधान पर आधारित है और यदि यह कहा जाए कि भारतीय संविधान में यदि अनुच्छेद 25 ना हो या हटा दिया जाए तो पैंटिकोस्टल चर्च पद्धति इस देश में नहीं चल सकती तो यह कहना गलत नहीं होगा। दुर्भाग्यवश आज ईसाई समाज में पैंटिकॉस्टल पद्धति के अन्तर्गत विश्वास को गलत ढंग से प्रस्तुत किया जा रहा है क्योंकि ज्यादातर देखा गया है कि अनुसरण तो एपिस्कोपल पद्धति का किया जा रहा है लेकिन एपिस्कोपल पद्धति की मूल भूत जरूरतों को पूरा करने पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है मसलन एक पादरी का मूल रूप से ईसाई धर्म से सम्बंधित होना। अब यदि कानून की किसी भी इकाई के द्वारा किसी भी परिस्थिति में पूछ ताछ या जांच की जाती है तो सेवक के द्वारा अपना परिचय एक पादरी के रूप में प्रदर्शित किया जाता है जो कि जाँच इकाई के द्वारा उसे स्वतः ही एपिस्कोपल पद्धति का हिस्सा समझ लिया जाता है लेकिन असल में वह पूर्ण रूप से एपिस्कोपल चर्च पद्धति का हिस्सा नहीं होता है और इसी वजह से वह व्यक्ति क़ानूनी पेचीदगी में मजबूरन फंस जाता है। अमूमन देखा गया है कि अपने आपको एपिस्कोपल पादरी के रूप में साबित ना कर पाने के कारण भी वह सेवक अपने आपको क़ानूनी फंदे में खुद ही फँसा देता है। 


कुछ उपाए: 



    यदि हम उपायों की बात करें तो बड़े ही सहजता के साथ यह कहा जा सकता है कि यदि कोई व्यक्ति पैंटिकॉस्टल चर्च पद्धति का हिस्सा है और वह सेवा करना चाहता है तो कानून की नज़र में उसे अपने आपको जब तक पादरी, पास्टर, अपोस्टल, प्रोफेट, रेवरेंड, बिशप नहीं कहना चाहिए जब तक कि वह पूर्ण रूप से एपिस्कोपल चर्च पद्धति का क़ानूनी रूप में अनुसरण ना करता हो। सरल शब्दों में कहा जा सकता है कि वह व्यक्ति अपने आपको एक मसीह अनुयायी के रूप में भी क़ानूनी दृष्टिकोण से प्रदर्शित कर सकता है जो कि गृह कलसिया भी चला सकता है और लोगों को कानून संगत तरीके से इकठ्ठा करके बाइबिल से प्रचार व प्रसार भी कर सकता है। लेकिन यदि वह व्यक्ति अपने आपको पादरी, पास्टर, अपोस्टल, प्रोफेट, रेवरंड अथवा बिशप के रूप में प्रदर्शित करना चाहता है तो क़ानूनी रूप में सिर्फ यह ही समझा जाएगा कि वह व्यक्ति एपिस्कोपल चर्च पद्धति का हिस्सा है और इसके लिए उसका सबसे पहले ईसाई होना अत्यंत आवश्यक है। संवैधानिक रूप से भी एक आम नागरिक के रूप में सेवा की जा सकती है जैसा कि ऊपर बतया गया है कि यह हर एक नागरिक का अनुच्छेद 25 भारतीय संविधान के अंतर्गत मौलिक अधिकार है। निष्कर्ष के रूप में और बड़े ही साधारण शब्दों में कहा जा सकता है कि पैंटिकॉस्टल चर्च पद्धति आस्था एवं विश्वास के आधार पर आत्मिक परिवर्तन पर आधारित है जो कि संविधान के अंतर्गत है जिसका सांसारिक धर्मांतरण से कोई सम्बन्ध नहीं है। लेकिन एपिस्कोपल चर्च पद्धति के अंतर्गत पादरी के रूप में सेवा सिर्फ ईसाई व्यक्ति के द्वारा ही की जा सकती है।  


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