मसीह प्रार्थना, आस्था व् विश्वास का संवैधानिक मूल्यांकन

By Nempal Singh (Advocate):



मसीह प्रार्थना, आस्था व् विश्वास का संवैधानिक मूल्यांकन ;  

          एक गणराज्य में और भारत जैसे गणराज्य में यह कहने में कोई दो राय नहीं है  कि भारत देश एक ऐसा गणराज्य है जहाँ विभिन्न धर्म व जाति के लोग वास करते हैं और भारत देश में संवैधानिक तौर पर यदि देखा जाए तो कहा जा सकता है कि भारत एक धर्म निरपेक्ष्य देश है जहाँ संवैधानिक तौर पर सभी धर्मों का बहुत अधिक महत्व है। भारत अपनी एकता व् अखंडता के लिए जाना जाता है। लेकिन मसीह विश्वास के विषय में संवैधानिक पहलू क्या हो सकते है? यह एक बड़ा सवाल है। इस सवाल के उत्तर को खोजना बहुत अधिक आवश्यक है और यह आवश्यक तब भी हो जाता है जब कुछ असंवैधानिक घटनाओं का पता चलता है। आलोचकों के द्वारा इस बात को स्वीकार किया जाए यह आवश्यक नहीं है। 

संविधान की नज़र में : 


         संविधान की नजर से देखा जाए तो संविधान के लिए हर एक नागरिक सिर्फ एक नागरिक है। हर एक नागरिक का अपना मत और अपनी आस्था हो सकती है और इस बात से संविधान पर कोई फरक नहीं पड़ता कि किस नागरिक की क्या आस्था है या वह किस धर्म को मानता है। वह किस धर्म ग्रन्थ को पढता है या वो किस धार्मिक स्थल पर लगातार या कभी कभार जाता है। संवैधानिक सत्य यही है कि संविधान की नज़र में हर एक नागरिक एक समान है। संविधान नागरिकों में कोई भेद भाव नहीं करता। मसीह विश्वास यीशु मसीह पर एक व्यक्ति द्वारा किये गए विश्वास के आधार पर माना जा सकता है और वह व्यक्ति जब विश्वास करता है तो जाहिर तौर पर गिरजाघर में भी जाता है या ऐसे स्थान में जाता है जहाँ मसीह प्रार्थना व् अराधना होती है और वहां जाकर उसे आत्मिक शांति का एहसास होता है। इसके पीछे कोई भी कारण माना जा सकता है। जो भी व्यक्ति यीशु मसीह पर विश्वास रखता है उसके जीवन में उस एक धार्मिक ग्रन्थ का हर प्रकार से योगदान होता है जो कि पवित्र बाइबिल के रूप में जाना जाता है। अब सवाल यह है कि मसीह विश्वास के सन्दर्भ में संविधान क्या कहता है ? भारतीय संविधान की यदि बात की जाए तो कहा जा सकता है कि भारतीय संविधान सभी धर्मो के विषय में एक जैसी बात बोलता है यदि हम अनुच्छेद 25 (अधिक जानकारी के लिए यहाँ क्लिक करें)के विषय में बात करें तो संविधान बिलकुल स्पष्ट रूप में यह व्याख्या करता है कि हर एक भारतीय नागरिक कोअन्तःकरण की स्वतंत्रता प्राप्त है। अर्थ यह है कि कोई भी व्यक्ति अपने अन्तःकरण के अनुसार यानि कि अपने अंदरूनी मन के अनुसार किसी भी विश्वास या आस्था का स्वेच्छा से चयन कर सकता है। वह अपनी आस्था के अनुरूप उस धर्म को अनुपालन कर सकता है और उस धर्म के अनुसार आचरण भी कर सकता है। इसके लिए उस व्यक्ति विशेष को किसी से भी इजाजत लेने की आवश्यकता नहीं है। इसके अतिरिक्त वह व्यक्ति अपनी आस्था के अनुसार उस धर्म का प्रचार व् प्रसार भी कर सकता है। अब सवाल यह उठता है कि क्या यह अधिकार जो कि उस व्यक्ति का एक मौलिक अधिकार भी है उस व्यक्ति को पूर्ण रूप से बिना रोक टोक के प्राप्त होता है? इसके जवाब में अनुच्छेद 25 बिलकुल स्पष्ट है कि उस व्यक्ति को अपनी उस स्वंतंत्रता या अधिकार का इस्तेमाल करने के लिए तीन मुख्य बातों का ख्याल रखना होगा। जैसा कि व्याख्या की गयी है और अनुच्छेद 25 में स्पष्ट लिखा गया है कि प्रत्येक नागरिक को यह अधिकार तभी प्राप्त होगा जब वह लोक स्वास्थ्य, नैतिकता व् लोक व्यवस्था का ख्याल रखेगा अर्थात यदि वह व्यक्ति अपने धार्मिक अधिकार का इस्तेमाल करना चाहता है तो वह उस अधिकार का इस्तेमाल करते समय ध्यान रखे कि उसके उस अधिकार से कहीं किसी अन्य व्यक्ति या नागरिक के स्वास्थ्य पर गलत असर तो नहीं पड़ रहा यदि उदहारण के तौर पर देखें तो यदि किसी व्यक्ति के द्वारा किसी सार्वजनिक स्थल पर साउंड सिस्टम का बिना अनुमति के इस्तेमाल किया जा रहा है और यदि उससे वहां के लोग बाधित हो रहे हैं या उनकी शांति बाधित हो रही है जो कि उनका जीवन जीने का संवैधानिक अधिकार है तो उस स्थिति में उस व्यक्ति विशेष को अनुच्छेद 25 के अंतर्गत उसका धार्मिक अधिकार पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं होगा। यदि लोक व्यवस्था की बात की जाए तो उदाहरण के तौर पर कहा जा सकता है कि यदि कोई व्यक्ति विशेष कहीं एक स्थल पर अपने धर्म का प्रचार प्रसार कर रहा है और वहां के लोग उस प्रचार को लेकर असहज महसूस करते हैं और शांति भांग करने की कोशिश करते हैं तो उस व्यक्ति विशेष को उस स्तिथि में उसका धार्मिक अधिकार प्राप्त नहीं हो सकेगा क्योंकि उस व्यक्ति विशेष के सन्दर्भ में लोगों द्वारा पुलिस को शिकायत की जा सकती है झूठे आरोप लगाए जा सकते हैं और पुलिस के द्वारा उस व्यक्ति विशेष का धार्मिक अधिकार बाधित किया जा सकता है। इसके पीछे मुख्य कारण यह है कि पुलिस के ऊपर शान्ति व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी होती है और किसी भी इस प्रकार की स्थिति में पुलिस द्वारा हस्तक्षेप किया जाता है और यह सुनिश्चित किया जाता है कि किसी भी प्रकार का जान माल का नुकसान ना हो और उस व्यक्ति विशेष को प्रचार व् प्रसार के लिए रोका जा सकता है। अब यह कहा जाना भी उचित होगा कि राज्य द्वारा किसी भी नागरिक की धार्मिक स्वतंत्रता तभी बाधित की जा सकती है जब यदि वह व्यक्ति लोक स्वास्थ्य, नैतिकता या लोक व्यवस्था का ख्याल नहीं रखता है। अब नैतिकता के सन्दर्भ में बात की जाए तो एक उदाहरण यह हो सकता है कि यदि कोई व्यक्ति विशेष अपने धर्म का प्रचार या प्रसार कर रहा है और यदि वह या उससे जुड़ा हुआ कोई अन्य सदस्य कुछ अनैतिक बात कह देता है या कुछ ऐसा कर देता है जिसे कानून के अंतर्गत उस कृत्या को अनैतिक माना गया है तो उस परिस्थिति में उस व्यक्ति विशेष को धार्मिक स्वंत्रता प्राप्त नहीं होगी और उस व्यक्ति के खिलाफ पुलिस के द्वारा कार्यवाही की जा सकती है क्योंकि उसने अपने धार्मिक अधिकार का इस्तेमाल करते हुए नैतिकता का ख्याल नहीं रखा और एक अनैतिक अपराध कर दिया जो कि गैर क़ानूनी होने की वजह से एक अपराध के रूप में गिना जाएगा। 

संवैधानिक मूल्यांकन : 

        किसी भी धर्म के अंतर्गत प्रार्थना करना, उपासना करना या  किसी भी विधि के अनुसार (जो कि एक कानूनन विधि हो) के अनुसार कर्म कांड करना एक धार्मिक अधिकार की श्रेणी में आता है। अब यदि मसीह धार्मिक आचरण की बात करें तो कहना उचित होगा कि अन्य धर्मों की तरह मसीह धर्म का भी अपना एक आचरण है जो कि स्तुति अराधना, प्रार्थना व् प्रार्थना के दौरान अन्य अन्य भाषा में बोलना  मसीह आचरण कहलाता है। अब अगर संवैधानिक मूल्यांकन की बात करें तो एक व्यक्ति के द्वारा यदि किसी धर्म में आस्था व् विश्वास  रखते हुए आचरण किया जाता है और यदि वह मसीह विश्वास के अंतर्गत आने वाला आचरण है तो वह उस व्यक्ति विशेष का अनुच्छेद 25 के अंतर्गत धार्मिक अधिकार कहलायेगा। यदि कोई व्यक्ति अपनी आस्था के अंतर्गत अपने घर में प्रार्थना कर रहा है या नित नियत समय पर या नियम के अनुसार हर रविवार को मसीह धर्म के अनुसार प्रार्थना करता है और उसी मत के कुछ लोग उस प्रार्थना सभा में शिरकत करते है और वह भी अपनी आस्था के आधार पर प्रार्थना व् आराधना करते है तो ऐसी प्रार्थना सभा के लिए किसी से भी किसी भी किस्म की अनुमति लेने की कोई भी आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह उस व्यक्ति विशेष का बतौर भारतीय नागरिक एक संवैधानिक अधिकार है।  काफी लोग इस विषय में सवाल करते हैं कि क्या मसीह संगती या प्रार्थना जो कि एक घर में या फिर किसी रेंट पर लिए गए स्थान पर की जाती है तो क्या किसी के द्वारा कानूनन रूप से उस प्रार्थना या अराधना को बाधित किया जा सकता है ? इस सवाल के जवाब में यह कहा जा सकता है कि यदि कोई भी व्यक्ति अपनी आस्था के अनुरूप किसी भी अराध्य या किसी भी धर्म का अनुपालन करते हुए अपने घर में या फिर किसी भी अपने निजी स्थान को चुन कर प्रार्थना,अराधना, सत्संग, पूजा या इबादत करता है तो वह उसका निजी मामला है और उसका मौलिक एवं संवैधानिक अधिकार भी है और यदि कुछ उसके जान पहचान के लोग या फिर कुछ ऐसे लोग जो उस तरह की आस्था या विश्वास रखते हैं यदि उस प्रार्थन, अराधना, सत्संग, पूजा या इबादत में बिना बुलाए अपनी आज़ाद मर्जी से आते हैं तो वह परिस्थिति गैर क़ानूनी कतई नहीं मानी जा सकती है और इस तरह की प्रार्थना, अराधना, सत्संग, या फिर इबादत के लिए किसी से भी अनुमति लेने की कोई आवश्यकता नहीं है।

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि अन्य विश्वास या आस्था की तरह ही मसीह आस्था व् विश्वास भी एक अपने आप में धार्मिक आस्था व् विश्वास है जो कि भारत के संविधान  के अनुरूप है और किसी भी तरह से गैरकानूनी नहीं माना जा सकता है। यदि कोई भी व्यक्ति फिर चाहे वह किसी भी धर्म से मूल रूप से सम्बन्ध क्यों न रखता हो उस व्यक्ति को अपनी आस्था व् विश्वास के चयन का पूर्ण अधिकार है और वह अपनी आस्था व् विश्वास का प्रचार प्रसार भी कर सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि किसी के भी द्वारा मसीह आस्था को या फिर किसी भी अन्य आस्था को रोकने का कोई अधिकार नहीं है।  


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