क्या लगाई जा सकती है घर में की जा रही प्रार्थना पर रोक?
Nempal Singh (Advocate)
Date: 31/10/2022
क्या लगाई जा सकती है घर में की जा रही प्रार्थना पर रोक?
इन दिनों में देखने में आया है कि कथित तौर पर जब मसीह लोगों के द्वारा घर में प्रार्थना की जाती है तो उस प्रार्थना को धर्मांतरण का नाम दे दिया जाता है और मसीह आस्था रखने वाले लोगों के खिलाफ धर्मांतरण का आरोप लगा कर पुलिस के द्वारा मुक़दमा दर्ज कर लिया जाता है। यदि वह एक जन्मदिन मनाए जाने पर की जा रही प्रार्थना हो या फिर किसी और मौके पर की जा रही प्रार्थना हो या फिर हर रविवार को की जाने वाली प्रार्थना ही क्यों ना हो, कुछ कट्टरपंथियों के द्वारा हंगामा किया जाता है और मौके पर पुलिस को बुला लिया जाता है और प्रार्थना कर रहे व्यक्तियों पर धर्मांतरण का आरोप लगा कर पुलिस द्वारा कार्यवाही कर दी जाती है। अब इस प्रकार की घटनाओं को देखकर साधारण या ऊपरी तौर पर एक बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या मसीह आस्था रखने वाला व्यक्ति या परिवार अपने घर में प्रार्थना सभा का आयोजन कर सकता है या नहीं ? क्या यह माना जाना चाहिए कि मसीह आस्था रखने वाला व्यक्ति यदि प्रार्थना सभा का आयोजन करेगा तो वह एक अपराध होगा? इस तरह के सवालों का जवाब कानून के मद्देनज़र दिया जाना बहुत अधिक आवश्यक है और इस बात को जानलेना भी आवश्यक है कि क्या मसीह आस्था के साथ की जाने वाली प्रार्थना एक अपराध है?
क़ानूनी पहलू :
इस बात को मुख्य रूप में समझ लेना बहुत अधिक आवश्यक है कि आस्था किसी भी रूप में कानून का विषय नहीं है और ना ही होना चाहिए। यह तो एक जीवन जीने का अधिकार और स्वतंत्रता का विषय है जो कि संविधान हर नागरिक को देता है। आस्था एक ऐसा अधिकार और स्वतंत्रता है जो हर व्यक्ति का निजी अधिकार है और इस अधिकार को निजता का अधिकार भी पुख्ता तौर पर कहा जा सकता है। अब निजता के अधिकार के विषय में यदि हम बात करें तो सरल शब्दों में कहा जा सकता है कि निजता वह है जो निजी है और व्यक्ति विशेष की अपनी है। निजता का अधिकार एक संवैधानिक अधिकार है जो कि अनुच्छेद 21 भारतीय संविधान के अंतर्गत आता है जिसे "जीवन और स्वतंत्रता" के रूप में जाना जाता है। धार्मिक अधिकार मुख्य रूप में अनुच्छेद 25 से 28 भारतीय संविधान के अंतर्गत आता है जो कि हर एक नागरिक को प्राप्त छह मौलिक अधिकारों में से एक है। ठीक इसी प्रकार "जीवन और स्वतंत्रता " का अधिकार भी मौलिक अधिकारों में से एक है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत आने वाले जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का सीधा सम्बन्ध भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 के अंतर्गत आने वाले धार्मिक अधिकार से है। जब कभी भी एक व्यक्ति अपने संवैधानिक धार्मिक अधिकार का प्रयोग करता है तो वह धार्मिक अधिकार सिर्फ उसके निजता के अधिकार से ही जोड़ा जाना चाहिए। अब बड़ा सवाल यह भी उठता है कि क्या निजता का अधिकार धार्मिक अधिकार से सम्बंधित हो सकता है? इस सम्बन्ध में तर्कसंगत तरीके से यह कहा जा सकता है कि जब एक व्यक्ति अपनी आस्था और विश्वास के आधार पर अपने धार्मिक अधिकार का उपयोग करता है और वह एक धर्म विशेष या फिर किसी और किस्म की आस्था को अपने मन में विकसित करता है तो वह उसका निजी मामला बन जाता है और वह निजी मामला उसका अपना मामला है जो कि उसकी धार्मिक आजादी को प्रदर्शित करता है और उसके इस निर्णय को जब तक वह व्यक्ति स्वयं ना बदलना चाहे कोई और व्यक्ति या किसी और प्रकार की व्यवस्था नहीं बदल सकती। अर्थात स्पष्ट तौर पर इस बात को समझा जा सकता है कि धर्म में आस्था का मुद्दा उसका संवैधानिक मुद्दा है। उस व्यक्ति द्वारा चुनी गयी अपनी आस्था या विश्वास का किसी भी कानून के साथ कोई भी सम्बन्ध नहीं होना चाहिए। 24 अगस्त 2017 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय की नौ जजों की बेंच ने "जस्टिस के० एस० पट्टास्वामी बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया व् अन्य " मामले में यह ऐतहासिक फैसला देते हुए कहा था कि निजता का अधिकार व्यक्ति का अनुच्छेद 21 भारतीय संविधान के अंतर्गत आने वाला अधिकार है और इस फैसले के बाद यह साफ़ हो गया कि निजता का अधिकार व्यक्ति का जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार के अंतर्गत आने वाला अधिकार है। अब इस फैसले से यह तो साफ़ हो गया कि निजता का अधिकार अनुच्छेद 21 भारतीय संविधान के अंतर्गत आने वाला "जीवन और स्वतंत्रता" के अधिकार के अंतर्गत आता है तो अब क्या धार्मिक अधिकार को भी निजता के अधिकार के साथ जोड़ कर देखा जा सकता है? यह एक बड़ा सवाल है और कथित तौर पर हो रही घटनाओं के सन्दर्भ में यदि देखा जाए तो इस सम्बन्ध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा फैसला लिया जाना अत्यंत आवश्यक है लेकिन यह तभी संभव है जब इस मुद्दे को न्यायालय के सामने लेकर जाया जाए।
आस्था और धर्मांतरण :
जैसा कि स्पष्ट हो गया है कि आस्था अथवा विश्वास का चयन व्यक्ति विशेष का अपना निजी मामला है और वह उसका मौलिक एवं अनुच्छेद 25 के अंतर्गत आने वाला धार्मिक अधिकार है और किसी भी तरीके से उसका यह अधिकार किसी के भी द्वारा छिना नहीं जा सकता। आस्था व्यक्ति की अपनी सोच एवं चयन का मुद्दा है इससे कानून का सम्बन्ध किसी भी रूप में नहीं होना चाहिए और यदि उसकी इस चयन करने की प्रक्रिया को कानून के द्वारा नियंत्रित किया जाता है तो वह उसके निजता के अधिकार का हनन माना जाना चाहिए क्योंकि आस्था का फैसला उसका अपना निजी फैसला है। अतः वह निजता के अधिकार के रूप में अनुच्छेद 21 भारतीय संविधान के अंतर्गत आने वाले जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार से सम्बंधित माना जाना चाहिए। अब जो मुख्य मुद्दा है जिस पर विचार किया जाना बहुत अधिक आवश्यक हो जाता है वह यह है कि क्या घर में की जा रही मसीह प्रार्थना सभा को धर्मांतरण का आरोप लगा कर बंद करा देना जायज है? इस बात की गहराई को समझना बेहद जरुरी है कि प्रार्थना करना मसीह आस्था रखने वाले लोगों का धार्मिक आचरण है और वह संविधान के अनुच्छेद 25 के अंतर्गत आता है और यह ठीक उसी तरह का है जिस तरह अन्य धर्मों के लोग अपने अपने घरों में अपनी आस्था और रीती विधान के अनुरूप उपासना या इबादत करते हैं। यह देश धर्मनिर्पेक्ष्य देश है और कोई भी व्यक्ति किसी भी धर्म को बिना क़ानूनी प्रक्रिया के मान कर और उसमें आस्था रख कर प्रार्थना, आराधना एवं इबादत कर सकता है क्योंकि यह उसका संवैधानिक एवं मौलिक अधिकार है। मूल रूप से इस बात को गहराई से समझ लेने की जरुरत है कि किसी एक धर्म विशेष के अंतर्गत आचरण करना क्या धर्मांतरण कहलाया जाना चाहिए? यदि मूल रूप से अनुच्छेद 25 भारतीय संविधान की बात की जाए तो यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि किसी भी धर्म को अपनी आस्था के अनुसार मानना और उस धर्म विशेष के अनुसार आचरण करना एक सामान्य नागरिक का मौलिक एवं संवैधानिक अधिकार है इससे धर्मांतरण का कोई सम्बन्ध नहीं है। लेकिन फिर भी कथित तौर पर काफी मामलों में यह देखा गया है कि एक व्यक्ति के मसीह प्रार्थना करने या उसमें शामिल होने मात्र को धर्मांतरण का नाम देने की भरपूर कोशिश की जाती है और धर्मांतरण कराने का आरोप लगा दिया जाता है। अब इस बात को बिना किसी उलझन के देखने की जरुरत है और ऊपरी दृष्टिकोण से यदि देखा जाए तो यह स्पष्ट तौर पर दिखाई देता है कि यदि कथित तौर पर मसीह प्रार्थना या आराधना को झूठा धर्मांतरण का आरोप लगा कर रोका जाता है तो वह उस व्यक्ति विशेष या समूह के संवैधानिक अधिकारों का हनन है और इस बात पर गहन विचार किया जाना बेहद आवश्यक है कि एक व्यक्ति के किसी भी धर्म को मानना व् उसके अनुसार आचरण करना उसका संवैधानिक एवं मौलिक अधिकार है और उस अपनी आस्था का प्रचार प्रसार करना भी उसका संवैधानिक अधिकार ही है जो कि अनुच्छेद 25 भारतीय संविधान के अंतर्गत मिलता है। धर्मांतरण का मसीह सुसमाचार से सीधे तौर पर कोई सम्बन्ध नहीं है। यदि पवित्र शास्त्र बाइबिल से प्रचार किया जाता है तो वह ठीक उसी प्रकार का प्रचार है जैसा कि इस देश में दूसरे धर्म ग्रंथों से प्रचार किया जाता है। बाइबिल और अन्य धर्म ग्रन्थ इस देश में एक जैसी मान्यता रखते है और क़ानूनी तौर पर बाइबिल से किये जाने वाले प्रचार को धर्मांतरण का नाम नहीं दिया जा सकता और यदि एक सामान्य नागरिक के द्वारा उसकी अपनी आस्था के अनुसार पवित्र शास्त्र बाइबिल से सुसमाचार प्रचार को रोका जाता है और उस व्यक्ति पर झूठा धर्मांतरण का आरोप लगाया जाता है तो जाहिर तौर पर यह उसके धार्मिक अधिकार एवं निजता के अधिकार का हनन ही माना जा सकता है और इसके लिए उस व्यक्ति को कानून का व् न्यायपालिका का सहारा लेना चाहिए। यह इस बात का संकेत है कि यदि अधिकारों का हनन हो तो पुख्ता तौर पर इस देश की एकता एवं धर्मनिर्पेक्षता को बरक़रार रखने के लिए कानून का सहारा लेकर न्यायपालिका के माध्यम से लड़ाई लड़ना बेहद जरुरी हो जाता है।
अंततः यह स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि इस देश में एक नागरिक सबसे पहले संविधान के अनुसार एक नागरिक है और उसके पास उसका धार्मिक एवं निजता का अधिकार है और उसके इन अधिकारों का किसी के द्वारा हनन नहीं किया जा सकता चाहे वह कोई व्यक्ति हो, संगठन हो या फिर प्रशासन हो। अपनी आस्था एवं विश्वास के लिए उस नागरिक को किसी से अनुमति लेने की कानूनन तौर पर कोई आवश्यकता नहीं है और यदि उस नागरिक को अपनी आस्था या विश्वास के लिए अनुमति लेने के लिए बाध्य किया जाता है तो स्पष्ट तौर पर वह उसका धार्मिक एवं निजता के अधिकार का हनन ही माना जाना चाहिए और यदि किसी भी नागरिक को अपने घर में या फिर समूह में मसीह प्रार्थना करने से रोका जाता है या फिर धर्मांतरण का झूठा आरोप लगया जाता है तो स्पष्ट तौर पर न्यायपालिका का सहारा लिया जाना अत्यन्त आवश्यक है तभी स्पष्ट तौर पर वह नागरिक अपने संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा कर पाएगा।
नोट: इस लेख का उद्देश्य कथित तौर पर हो रही घटनाओं के विषय में व संवैधानिक अधिकारों के सन्दर्भ में क़ानूनी विश्लेषण करना है।
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