Scheduled Tribes and Conversion. (Constitutional Provisions).

By Nempal Singh (Advocate)

Date: 13/10/2022



अनुसूचित जनजाति व् धर्मांतरण :


          आज इस ज्वलंत मुद्दे पर बात करना जरुरी है क्योंकि यह देखा गया है कि अनुसूचित जनजाति से सम्बंधित लोगों को धर्मांतरण के मुद्दे पर काफी तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। लगभग 11 राज्य इस देश में ऐसे हैं जहाँ गैरकानूनी धर्मांतरण निषेध कानून लागू किया गया है जिसका सीधा असर उन लोगों पर पड़ता दिखाई दे रहा है जो स्वेच्छा से धर्मांतरण करना चाहते है। क्योंकि उन राज्यों में धर्मांतरण को लेकर एक क़ानूनी प्रक्रिया है और वह प्रक्रिया व्यवहारिक तौर पर काफी जटिल महसूस होती है।अब सवाल यह उठता है कि क्या यदि एक व्यक्ति जो कि अनुसूचित जनजाति से सम्बन्ध रखता है अगर वह अपनी धार्मिक आस्था का चयन करता है तो क्या वह अपने अनुसूचित जनजाति होने के दर्जे को व अन्य लाभों को खो देगा? तर्कसंगत तरीके से क़ानूनी परिपेक्ष्य में इस बात को समझना जरुरी है कि कानून इस सम्बन्ध में क्या कहता है।  


अनुच्छेद 342 भारतीय संविधान के अंतर्गत :


       अनुच्छेद 342 भारतीय संविधान के अंतर्गत भारत के राष्ट्रपति को यह अधिकार है कि वह किसी भी ऐसे जनजातीय समूह अथवा आदिवासी कबीले को जिसे अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में रखा जाना जरुरी है, भारत के राष्ट्रपति के द्वारा उस समूह या कबीले को अनुसूचित जनजाति का दर्जा राज्य में या फिर केंद्र शासित प्रदेश में नोटिफिकेशन के द्वारा दिया जा सकता है। यदि राज्य की बात की जाए तो राष्ट्रपति के द्वारा उस राज्य के राज्यपाल के साथ परामर्श करके किसी एक लोगों के समूह या आदिवासी कबीले को अनुसूचित जनजाति का दर्जा नोटिफिकेशन के द्वारा दिया जा सकता है। अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में आने के बाद यह जान लेना जरुरी है कि उस समूह से सम्बंधित व्यक्ति किस धर्म से सम्बंधित समझा जाएगा? सामान्य व् संवैधानिक तौर पर यदि देखा जाए  तो यह जानलेना जरुरी है कि अनुसूचित जनजाति से सम्बंधित व्यक्ति का जन्मजात तौर पर किसी भी धर्म से सीधा सम्बन्ध नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि जन्मजात तौर पर सबसे पहले वह व्यक्ति एक अनुसूचित जनजाति का व्यक्ति है और बाद में उसका कोई धर्म है अर्थात यदि वह व्यक्ति चाहे तो अपने जन्म से सम्बंधित धर्म को जो कि उसके माता पिता के द्वारा अपनाया गया था को त्याग कर क़ानूनी प्रक्रिया के द्वारा अपने धर्म को बदल सकता है लेकिन धर्मांतरण के बाद भी उस व्यक्ति का अनुसूचित जनजाति का दर्जा किसी भी आधार पर नाकारा नहीं जा सकता या छिना नहीं जा सकता, उस व्यक्ति के द्वारा किये गए धर्मांतरण के बाद भी अनुसूचित जनजाति का दर्जा  कानूनन रूप से उस व्यक्ति को दिया जाना जरुरी है। इस सम्बन्ध में कुछ उच्च न्यायालय के आदेशों के ऊपर गौर करना बेहद जरुरी है। तभी इस विषय को ठीक तरीके से समझा जा सकता है। 


        स्टेट ऑफ़ आँध्रप्रदेश बनाम सुबलियम्मा AIR 1986 AP 154 में आँध्रप्रदेश उच्च न्यायालय के द्वारा यह कहा गया कि एक व्यक्ति का अनुसूचित जनजाति से सम्बंधित होना उसके जन्म का मुद्दा है ना कि उसकी अपनी  इच्छा या चयन का। इससे यह स्पष्ट तौर पर समझ में आ जाता है कि उच्च न्यायालय के द्वारा यह कहा गया कि एक व्यक्ति यदि अनुसूचित जनजाति से सम्बंधित है तो वह इसलिए है क्योकि वह उस श्रेणी में पैदा हुआ है ना कि उसने स्वयं उस श्रेणी को चुना है। मिनिस्ट्री ऑफ़ ट्राइबल अफेयर्स (2007) की वार्षिक रिपोर्ट में यह स्पष्ट किया गया कि एक समुदाय को अनुसूचित जनजाति कि श्रेणी में शामिल होने के लिए जरुरी है कि उस समुदाय में आदिम लक्षण होने चाहिए, उनकी एक विशिष्ठ संस्कृति होनी चाहिए, बड़े पैमाने पर आम जन व् लोगों से मिलने व् सम्बन्ध रखने  के विषय में वह समुदाय एक लज्जा करने वाला कबीला या समुदाय होना चाहिए, उस समुदाय का भौगोलिक रूप से अलगाव होना चाहिए और अंततः उनका सामाजिक दृष्टि से पिछड़ा होना आवश्यक है। इस रिपोर्ट के आधार पर भी यह स्पष्ट रूप में कहा जा सकता है कि एक अनुसूचित जनजाति समूह के लोग हर प्रकार से जन्म के आधार पर और अपनी सामाजिक, भौगोलिक स्थिति के आधार पर व् पिछड़ेपन के आधार पर ही अनुसूचित जनजाति श्रेणी में आते है इससे उनकी धार्मिक आस्था व् चयन का कोई सम्बन्ध नहीं है। इस प्रकार अनुसूचित जनजाति का दर्जा किसी भी तरह से धार्मिक दर्जे से कोई सम्बन्ध नहीं रखता है। संवैधानिक रूप में अनुसूचित जनजाति आर्डर में किसी भी प्रकार से धर्म का उल्लेख नहीं किया गया है और इस आर्डर के अंतर्गत एक समूह या समुदाय अनुसूचित जनजाति हो सकता है जो कि किसी भी धर्म से सम्बंधित हो सकता है अर्थात यदि किसी एक आदिवासी समूह या कबीले के लोग किसी एक धर्म को मानते है और वह समूह या कबीला अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में आता है तो उस समूह या कबीले का अनुसूचित जनजाति का दर्जा उनके अपने पैतृक मूल धर्म को त्याग कर किसी और धर्म को अपना लेने से किसी के भी द्वारा छिना नहीं जा सकता है। साधारण शब्दों में कहा जाए तो कहा जा सकता है कि यदि कोई अनुसूचित जनजाति से सम्बंधित व्यक्ति अपने पैतृक धर्म को त्याग कर कोई दूसरा धर्म अपना लेता है तो उसके अनुसूचत जनजाति होने का दर्जा राज्य या प्रशासन के द्वारा छिना नहीं जा सकता। 


      भारतीय संविधान में निहित अनुसूचित जनजाति जनगणना परिभाषा के अंतर्गत यह स्पष्ट तौर पर दर्शाया गया है कि एक अनुसूचित जनजाति का दर्जा धार्मिक पहचान से अलग रूप में समझा जाना चाहिए। अनुसूचित जनजाति आदेश 1950 👉 Constitution (Scheduled Tribes) Order, 1950 and the Constitution (Scheduled Tribes) (Part C States) Order of 1951. के अंतर्गत यह बिलकुल स्पष्ट है कि अनुसूचित जनजाति समूह या समुदाय किसी भी धर्म से सम्बंधित हो सकता है। इसी प्रकार से अनुसूचित जनजाति जनगणना परिभाषा 1971, 1981, 1991 व् 2001 के अंतर्गत भी स्पष्ट किया गया कि अनुसूचित जनजाति समुदाय किसी भी धर्म से सम्बंधित हो सकता है। 




अनुच्छेद 42, 335 व् 338 A भारतीय संविधान के अंतर्गत : 


         भारतीय कानून के परिपेक्ष्य में यदि समझा जाए तो अनुसूचित जनजाति समुदाय से सम्बंधित लोगों के हितो को सुरक्षित रखे जाने के विषय में कई प्रावधान हैं और साथ ही साथ भारतीय संविधान के अनुच्छेद 42 के अंतर्गत भी अनुसूचित जनजाति समुदाय के हितों के विषय में व्याख्या की गयी है जिसके अंतर्गत अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व् अन्य कमजोर वर्ग के लोगों के शैक्षणिक व् आर्थिक विकास के विषय में स्पष्ट रूप में लिखा गया है।


अनुच्छेद 335 भारतीय संविधान के अंतर्गत यह प्रावधान है कि अनुसूचित जाति व् अनुसूचित जनजाति के लोगों को राज्य व् केंद्र सरकार के अंतर्गत आने वाली सरकारी नौकरी अथवा सेवाओं में लाभ दिया जाना जरुरी है। 


       ठीक इसी प्रकार अनुच्छेद 338 A  भारतीय संविधान के अंतर्गत यह प्रावधान है कि अनुसूचित जनजाति समुदाय के सम्बन्ध में एक राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग का होना आवश्यक है जो कि राज्यों द्वारा बनाए जा रहे कानून व् आदेशों के सम्बन्ध में अनुसूचित जनजाति समुदाय के हितो का ध्यान रखे और उन हितो की सुरक्षा करे और साथ ही साथ अनुसूचित जनजाति समुदाय के उनके अपने अधिकार के सम्बन्ध में यदि कोई शिकायत प्रस्तुत की जाती है तो उसका निपटारा करे। इसके अलावा कुछ और कानून हैं जो अनुसूचित जाति व् अनुसूचित जनजाति के सम्बन्ध में उनके हितों को लेकर बनाए गए हैं जिनमें SC/ST (Prevention of Atrocities) Act, 1989 व्  Scheduled Tribes and other Traditional Forest Dwellers (Recognition of Forest Rights) Act, 2006. शामिल हैं। 


        1964 में कार्तिक ओराओं बनाम डेविड मुंजनी एवं अन्य में पटना उच्च न्यायलय के द्वारा इलेक्शन पेटिशन से सम्बंधित एक ऐतिहासिक फैसले में यह स्पष्ट रूप में कहा कि : 


"From the evidence of the parties discussed above, it appears that even if a non-christian Oraon omitted to observe some of the festivals and observed certain festivals in a manner different from others, he did not cease to be a tribal. It also appears that the Christian Oraons also observe some of the festivals of the tribals which are not in direct conflict with the religion of Christianity. The most important thing that appears from the evidence referred to above is that the non-christian Oraons treat the converted Oraons as tribals calling them 'Christian Oraons'. The very fact that the converted Oraons are called as 'Christian Oraons' shows that they are Oraons first and Christians next."


         ऊपर लिखित आदेश में पटना उच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट रूप में कहा कि साक्ष्यों के आधार पर यह पता चलता है कि ओराओं के द्वारा मनाए जा रहे कुछ त्यौहार दूसरों से अलग रीती के हैं लेकिन वह त्यौहार क्रिस्चियन त्यौहार से ज्यादा भिन्न नहीं है और ओराओं समुदाय के लोग परिवर्तित क्रिस्चियन ओराओं को भी एक जनजाति समूह के रूप में ही जानते व् मानते हैं और क्रिस्चियन ओराओं के नाम से बुलाते हैं और तथ्यों के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि परिवर्तित क्रिस्चियन ओराओं समूह के लोग क्रिस्चियन ओराओं के रूप में जाने जाते हैं। अंत में पटना उच्च न्यायालय ने कहा कि इससे यह प्रदर्शित होता है कि परावर्तित ओराओं पहले ओराओं हैं और बाद में क्रिस्चियन हैं।


     ठीक इसी तरह एक पैतृक सम्पत्ति से सम्बंधित पेटिशन जेना ओराओं बनाम जोहन ओराओं (17/01/1951) में पटना उच्च न्यायालय ने यह फैसला देते हुए कहा कि ओराओं  शब्द सिर्फ जनजाति अथवा आदिवासी होने को प्रदर्शित करता है किसी धर्म को प्रदर्शित नहीं करता है। 


     ठीक इसी प्रकार छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने अपने एक 30/01/2019 में एक इलेक्शन पेंशन नंबर 30/2014 समीरा पैकारा बनाम अजीत जोगी  से सम्बंधित आदेश में उस विषय को स्पष्ट किया जिसमें यह कह गया था कि धर्म परिवर्तन करने पर व्यक्ति का अनुसूचित जनजाति का दर्जा नहीं रहता है और न्यायालय ने कहा कि एक अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति के द्वारा धर्म परिवर्तन करने पर उसका जनजाति का दर्जा नहीं छिना जा सकता चाहे वह एक क्रिस्चियन ही क्यों ना बन गया हो। इस मामले में पेटिशनर द्वारा छत्तीसगढ़ विधानसभा की अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीट को लेकर पेटिशन दायर की गयी थी और प्रतिवादी पर यह आरोप लगाया गया था कि प्रतिवादी ने अपना धर्म बदल कर क्रिस्चियन धर्म अपना लिया है और वह अब अनुसूचित जनजाति में नहीं गिना जा सकता है। जिसमें उच्च न्यायालय ने फैसला देते हुए कहा : 


"It can be presumed that even if the respondent adopted Christianity, his right of status of Kanwar Tribe can not be taken away." 


        अर्थात यह उच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप में कहा कि यद्धपि प्रतिवादी ने अपना धर्म बदल कर क्रिस्चियन धर्म अपना लिया है तो भी उसका कँवर जनजाति का दर्जा उससे छिना नहीं जा सकता। 


       सारांश में इस बात को दावे के साथ स्पष्ट रूप में कहा जा सकता है कि आदिवासी समुदाय के किसी भी व्यक्ति को इस बात की स्वतंत्रता है कि वह अपने जन्मजात अथवा अपने पैतृक मूल धर्म को त्याग कर किसी भी धर्म को क़ानूनी प्रक्रिया के द्वारा अपना सकता है और उसके द्वारा धर्मांतरण करने बाद उसका किसी भी रूप में अनुसूचित जनजाति का दर्जा किसी भी सरकार अथवा राज्य के द्वारा छिना नहीं जा सकता है। 




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